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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 16 


बैकुण्ठ धाम में विष्णु भगवान शेष शैय्या पर विश्राम कर रहे थे । उनके कमल नयन अधमुंदे से थे जैसे के वे कुछ गहन चिंतन मनन में व्यस्त हों । लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही थीं । लक्ष्मी जी का चेहरा मलिन, कान्ति हीन और उदास लग रहा था जैसे किसी चिंता में घुली जा रही हों । उनका ध्यान बंटा हुआ देखकर नारायण भगवान ने पलकें खोली और कहा "कहां खोई हुई हैं देवि" ? 

विष्णु भगवान की बात सुनकर लक्ष्मी जी जैसे तन्द्रा से जागीं । बात छुपाते हुए बोलीं "कहीं नहीं प्रभु । आपके चरणों के सिवाय मेरा और कौन सा धाम है ? आपके ही खयालों में तो खोई रहती हूं सदैव" । लक्ष्मी जी अपनी बात बताने को तैयार नहीं थी अभी । 
"आपने कब से मिथ्या भाषण प्रारंभ कर दिया है देवि ? यहां बैकुण्ठ धाम में मिथ्या भाषण तुरंत पकड़ में आ जाता है देवि । सच सच कहो कि बात क्या है जिसने आपके चांद से मुखड़े को राहु की तरह ग्रस लिया है" ? 
"आप तो अन्तर्यामी हैं भगवन ! जब आपने यह जान लिया है कि मैं मिथ्या भाषण कर रही हूं तब आप यह भी पता लगा लीजिए कि मैं किस सोच में डूबी हुई हूं ? आपके लिए यह कौन सा कठिन कार्य है, देव ? कमला ने श्री नाथ से नजरें मिलाते हुए कहा 
"हम तो आपके ही श्री मुख से सुनना चाहते हैं देवि । आपकी मधुर वाणी हमें बहुत प्रिय है प्रिये । जी चाहता है कि आप बोलती रहें और हम सुनते रहें । वैसे तो हर घर की यही कहानी है देवि कि पत्नी बोलती रहती है और बेचारा पति सुनता रहता है । उसकी इतनी सी भी मजाल नहीं है जो बीच में कुछ भी बोल जाये वह । प्रभु के अधरों पर शरारत खेलने लगी । 
"आपके मुखार विंद को देखकर मैं तो सब कुछ भूल जाती हूं, देव ।  इसलिए कुछ कहने का होश ही नहीं रहता है । इसकी भरपाई करने के लिए मैंने पृथ्वी लोक की समस्त स्त्रियों को वरदान दे दिया है कि वे इतना बोलें कि पतिदेव यह सोचकर सिर धुनने लगे कि मैंने विवाह नाम की "बिल्ली" पाली ही क्यों" ? 
"बिल्ली पालना तो वैसे भी शुभ नहीं होता है देवि । अगर पालना है तो कोई शौक पाल लीजिए जिससे अपने पति परमेश्वर पर अर्थ का और अधिक बोझ डाला जा सके । वैसे, अब बता भी दो कि आपके सुन्दर से मुखड़े पर चिंता की लकीरें किसलिए उभर रहीं हैं" ?
"स्वामी, मेरी चिंता का कारण एक ही है । सत्यवान की आयु कल पूरी हो रही है । बेचारी सावित्री का क्या होगा ? वैधव्य का अभिशाप झेलने को विवश हो जायेगी वह । अभी तो उसने प्रसन्नता के महासागर में पांव रखा ही है और अभी से उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है स्वामी । आप तो समस्त लोकों के अधिपति हैं , आप ऐसा कुछ क्यों नहीं करते जिससे पुत्री सावित्री को वैधव्य नहीं झेलना पड़े " । लक्ष्मी जी मायूस होकर बोलीं 
"आप सत्य कहती हैं देवि । सावित्री ने एक ही बार तो बसंत के मौसम का आनंद लिया है और अब ये वाला बसंत उसके जीवन में फिर कभी आने वाला नहीं है । कल सत्यवान की आयु पूरी हो जायेगी और फिर उसके कर्मों के अनुसार उसे अगली योनि मिल जायेगी । पर बेचारी सावित्री का क्या होगा " ? 
"यही चिंता तो मुझे खाये जा रही है, मधुसूदन । सावित्री ने अत्यंत अल्प अवधि में अपने परिश्रम, बुद्धिमानी , प्रेम, आचरण, व्यवहार और सेवा से समस्त पतिव्रताओं में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लिया है । उसने नारी जाति को गौरव के शिखर पर बैठा दिया है । इसलिए हे नाथ , कुछ ऐसा कीजिए न कि कल सत्यवान की मृत्यु नहीं हो" । लक्ष्मी जी के स्वर में अनुनय विनय सब था 
"प्रकृति के नियम सबके लिए एक जैसे हैं देवि । कल सत्यवान की बारी है तो परसों किसी और की बारी होगी । व्यष्टि के लिए नियम भंग नहीं हो सकते हैं । यदि यह सिलसिला प्रारंभ हो गया तो फिर इसका अंत नहीं होगा । एक यमराज ही तो ऐसे देव हैं जो निष्काम कर्म में अनवरत लिप्त रहते हैं । बिना राग -द्वेष, आसक्ति, ममता, स्पृहा, अहंता के वे निरंतर अपने कार्य में रत रहते हैं । मृत्यु जैसा कठोर कर्म कर रहे हैं वे । जिस परिवार में से जब कोई मृत्यु हो जाती है तब वह परिवार यमराज को कितनी गालियां देता है ? इतनी गालियां खाने के बाद भी यमराज प्रसन्नता के साथ अपना कर्तव्य कर्म कर रहे हैं । अपने कर्मों में इस प्रकार रत रहते हैं कि वे अपना भी ध्यान रखना भूल जाते हैं । जब जिसका समय समाप्त हो जाता है , यमराज तत्क्षण उसी समय उसे पाश में बांधकर लाने कै लिए चल पड़ते हैं । संपूर्ण सृष्टि में ऐसा आचरण और किसी का नहीं है । 

जन्म , मृत्यु का विधान मेरी ही आज्ञा से स्वयं ब्रह्मा जी ने तैयार किया है । अब मैं ही उस विधान में परिवर्तन के लिए तो नहीं कह सकता हूं न देवि ? मृत्यु अटल है, शाश्वत है और सत्य है । सत्यवान के लिए नियम नहीं बदले जा सकते हैं । इसलिए मैं इस प्रकरण में कुछ भी कर सकने में असमर्थ हूं देवि" लक्ष्मीनारायण के स्वर में विवशता की पीड़ा थी । 

इस प्रकार से भगवान विष्णु के द्वारा हाथ खड़े कर देने से लक्ष्मी जी बहुत निराश हुईं । उनकी आशा का केन्द्र बिन्दु "स्वामी" ही तो थे, मगर उन्होंने इस प्रकरण में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था । अब तो सत्यवान की मृत्यु निश्चित ही है , यह सोचकर लक्ष्मी जी के नैनों में अश्रुओं की बाढ़ आ गई । "क्या कोई और उपाय नहीं है प्रभु" ? कमला ने एक अंतिम प्रयास किया 

बहुत देर तक भगवान सोचते रहे । फिर कहने लगे "मनुष्य को अपने कर्मों के अनुरूप योनि और अवधि प्राप्त होती है ।जब उसके पुण्य संचित होते हैं तब उसे मनुष्य योनि मिलती है । प्रारब्ध के अनुसार ही उसका जन्म चार वर्णों में से किसी एक वर्ण में , उसमें भी उच्च अथवा निम्न वर्गीय परिवार में होता है । दैव (भाग्य) के अधीन उसका जीवन रहता है और दैव से ही उसकी मृत्यु होती है । यही नियम सब पर लागू होता है देवि । आज तक सृष्टि चक्र इन्हीं नियमों से संचालित होता आया है और भविष्य में भी इन्हीं नियमों के अधीन ही होता रहेगा" । 
"क्या जीवन में सब कुछ भाग्य ही होता है प्रभु ? क्या पुरुषार्थ अर्थात कर्मों का कोई महत्व नहीं है ? यदि भाग्य ही सब कुछ निर्धारित करता है तो फिर कोई मनुष्य कर्म करेगा ही क्यों ? इस सिद्धांत से मनुष्य आलसी नहीं हो जाएगा प्रभु" ? 
"आप सही कहती हैं देवि । जीवन में भाग्य बहुत महत्वपूर्ण है मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीवन में कर्म का कोई महत्व नहीं है । वस्तुत: भाग्य और कर्म दोनों परस्पर विरोधी नहीं है देवि , दोनों परस्पर पूरक हैं । भाग्य को आप दीपक की बाती जानो और कर्म को दीपक का तेल । यदि इंसान कर्म नहीं करेगा तो दीपक का तेल समाप्त हो जायेगा और दीपक बुझ जायेगा । यदि इंसान अपना कर्तव्य कर्म करता रहेगा तो दीपक में तेल भी बढ़ता रहेगा और वह दीपक कभी बुझ नहीं सकेगा । इसी तरह सावित्री को सत्यवान रूपी दीपक को जलाये रखने के लिए कर्तव्य कर्म करने पड़ेगें । उसे यमराज को अपनी बुद्धिमत्ता, ज्ञान, शील , मधुर वचन , सेवा, सम्मान और प्रतिबद्धत्ता से प्रसन्न करना होगा । तत्पश्चात यमराज जी ही तय करेंगे कि उन्हें क्या करना है ? ये एक प्रकार से सावित्री के पतिव्रत धर्म की परीक्षा होगी देवि । यदि वह इसमें सफल हो गई तो वह न केवल सत्यवान को वापिस ले आएगी अपितु अपने ससुराल और मायका दोनों पक्षों का वैभव लौटा लाएगी । सब लोकों में उसकी कीर्ति पताका फैल जाएगी । पतिव्रता स्त्रियों की पंक्ति में वह सबसे आगे नजर आयेगी । वह सब स्त्रियों के लिए एक आदर्श स्त्री बन जायेंगी । अब यह सावित्री पर निर्भर करता है कि वह इस आपदा को अपने कर्म, आचरण और बुद्धिमानी से अवसर में किस प्रकार परिवर्तित करती है । लोग हर बात में मुझसे उम्मीद लगाकर बैठ जाते हैं कि हे भगवान, मेरा यह मनोरथ सफल कर देना , मैं इतने रुपए का प्रसाद चढ़ा दूंगा । दरअसल ऐसा करने वाले लोग अज्ञानी हैं । मैं मनुष्य के किसी भी कार्य में लिप्त नहीं होता हूं । मनुष्य को ही कर्म करना होता है । जो मनुष्य कर्तव्य कर्म करता है , सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है उसे । मनुष्य का कर्तव्य है कि वह समता में रहकर आसक्ति रहित ,ममता और स्पृहा रहित होकर विवेकशील बुद्धि से बिना फल की इच्छा के, निष्काम कर्म करे । ऐसे कर्मों का फल अवश्य ही उसे मिलेगा । अब देखते हैं कि सावित्री इस कर्तव्य कर्म रूपी यज्ञ को किस प्रकार संपन्न करती है ? यदि वह अपने कर्म में सफल हो जाएगी तो उसका इहिलोक और परलोक दोनों संवर जायेंगे । इसलिए हे देवि, आप तो विधाता से प्रार्थना करो कि कल सावित्री को धैर्य, संयम और साहस दे जिससे वह अपने कर्तव्य कर्मों को एक तत्वदर्शी की तरह कर सके और यमराज को प्रसन्न करके उनसे अभीष्ट वर मांग सके । मेरी दृष्टि में एकमात्र यही उपाय है देवि" । भगवान विष्णु भी सावित्री के लिए चिंतित हो रहे थे । 

"अब सब कुछ कल पर ही छोड़ दिया है मैंने नाथ ! देखते हैं कि सावित्री अपने उद्देश्य में सफल होती है या नही 

क्रमश 

श्री हरि 
8.5.23 

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2 Comments

Nice 👍🏼

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Hari Shanker Goyal "Hari"

18-May-2023 05:14 PM

🙏🙏

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